JEEWAN SANGEET

Wednesday, June 9, 2010

सांझ ढलती गयी

सांझ ढलती गयी रात बढती गयी
दीप को मैं जला राह लखता रहा।
हो गयी भोर आँखें खुली ही रही
तुम न जाने कन्हन थे की आये नहीं । ।
दर्द मेरा ह्रदय में सजा ही रहा
तेरी यादों में जीवन घुलाता रहा
सांझ ढलती गयी रात बढती गयी।
दीप को मैं जला राह लखता रहा । ।
दुश्मनी कब की थी मैंने जाना नहीं
प्यार क्योंकर किया यह भी जाना नहीं
स्वप्न सारे सजाये मैं बैठा रहा
अपने आरमान को धू-धू जलाता रहा
सांझ ढलती गयी रात बढाती गयी
दीप को मैं जला राह लखता रहा। ।
राह सुनी हुई रात रोटी रही
अपने पलकों में शबनम छिपती रही
लोग आते रहे लोग जाते रहे
मौन बैठा मैं गम को छिपता रहा
सांझ ढलती गयी रात बढती गयी
दीप को मैं जला राह लखता रहा। ।
छिपाए छिपता नहीं दर्द किससे कंहूँ
जग के जीवन में निज को रमाता रहा
छल रही जिन्दगी ढल रही आस सब
तुम न आओगे यह मन समझता रहा
सांझ ढलती गयी रात बढती गयी
दीप को मैं जला राह लखता रहा । ।

No comments:

Post a Comment