हो अकेला खो गया हूँ
शहर के भीषण भवंर में .
मन नहीं लगता यंहा पर
कैद हो रोता नगर में . .
चाहकर न लौट सकता
ग्राम जीवन पा न सकता
खड़ा पुरखों का महल
पर हूँ अकेला जा न सकता . .
भूत का कहकर बसेरा
कोई भी रहता न घर में .
दर्शनीय था कभी जो
आज बदला खंडहर में . .
गिर पड़ेगा, देह होगा
कोई कब्ज़ा कर रहेगा
याद में बस शेष रहकर
घर मेरा इतिहास होगा . .
सुन्दर अभिव्यक्ति...एक टीस को उजागर करती हुई
ReplyDeleteApne sahari jeevn ki saachi peda likhi hai.Ham sabhi kheton ki muderen tod kar aye hain aur concrete ke jangle mein phans gaye hain.sarthak kavita hai bhai.
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